Thursday, 20 October 2016

बचपना vs परिपक्वता

बचपन vs परिपक्वता

कितनी आसान  थी जिंदगी जब हम बच्चे हुआ करते थे,
सब ईमान के बहुत पक्के थे घर भले ही कच्चे हुआ करते थे,

किसी से बैर पानी के बुलबुले जैसा था कुछ पल के लिए,
कुछ पलों बाद हम फिर से एक दूसरे के लिए अच्छे हुआ करते थे,

चेहरे पर नकाब लगाया करते थे सिर्फ एक दूसरे को डराने के लिए,
वरना हम अपने किरदार में बिलकुल सच्चे हुआ करते थे,

ना साजिशें,न् तरकीबें,न्  चुगली,न् चापलूसी न् ये दिखावा,
दिल बहलाने के लिए बस राजा रानी के किस्से हुआ करते थे,

अब तो एक आंसू भी  रुसवा कर जाता है,
बचपने में दिल खोल के तो रो लिया करते थे,

इन चार पैसो से क्या मुकाबला हो बचपन की अमीरी का,
जब पानी पर चलती थी कश्तियां हमारी और हवा में जहाज उड़ा करते थे

हर ऐशो-आराम भी आज कल खुश् नहीं रख पाता,
बचपन में टूटे खिलौने भी हमें खुश् रहा करते थे,

बारिश आ जाये तो जिंदगी थम सी जाती है आजकल,
वो दिन भी क्या थे जब बारिश के कितने मजे हुआ करते थे,

चंलना,बोलना,हँसना, आज कल सब सलीके से होता है,
उस बे-सलीके की जिंदगी के अब हम तरसा करते है,

मेरी लिखी हुई कुछ कविताएं और कुछ मेरी सबसे पसंदीदा कविताएं पढ़ने के लिए मेरे ब्लॉग में जाए...
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