राष्ट्रीयगान सिनेमाघरों में बाध्य : इतना हंगामा क्यों??
सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय के अनुसार सभी सिनेमाघरों में किसी भी सिनेमा से पहले राष्ट्रिय गान चंलना बाध्य कर दिया गया है, इस राष्ट्रिय गान के समय परदे पर तिरंगा लहराता हुआ दिखाई देगा, इस दौरान सभी दर्शकों को ससम्मान खड़े होना होगा,टाकीज के दरवाजे बंद रहेंगे,
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद से इस आदेश पर शुरू हो गई है कुछः लोगो ने इस फैसले का स्वागत किया है तो कुछ ने इसे "अति राष्ट्रवाद" करार दिया है और लोगो पर देशभक्ति थोपने का आरोप लगाया है, कुछ लोगो का मानना है कि इस फैसले से लोगो में देशभक्ति की भावना बढ़ेगी तो कुछ लोगो को ये सिर्फ दिखावा और औपचारिकता भरा आदेश लग रहा है, और अपने मौलिक अधिकारों का हनन लग रहा है,हर कोई अपनी समझ के हिसाब से इस आदेश की समीक्षा में लगा हुआ है, तो मैंने भी एक प्रयास किया है,
मेरी सोच में ये फैसला बहुत ही ऐतिहासिक और सही फैसला है, भारत में आजादी के 70 वर्षो के इतिहास में बहुत कम ही ऐसे निर्णय लिए गए है जो देशप्रेम का पाठ पढ़ाते हो, शायद आप को याद न् हो आजादी के बाद भारत के तिरंगे को सरकारी कार्यालयों से आजाद होने में लगभग 60 साल लग गए और ये तिरंगा लहराने की आजादी भी तब मिली जब एक बहुत बड़े उद्यगिक घराने के मालिक और सांसद नविन जिंदल ने इसके लिए पहल की,उसके बाद ही एक आम नागरिक को देश भर में कंही भी ससम्मान तिरंगा लहराने का हक़ मिला,
कमोबेश यही हाल राष्ट्रगान का भी है जो सिर्फ 15 अगस्त,26 जनवरी और स्कुल की किताबो में कैद हो कर रह गया है,इसको भी आजाद कराने की जरुरत है,भारत में देशभक्ति का जो ज्वार 15 अगस्त और 26 जनवरी को उमड़ता है उसका 1% भी स्थायी रह जाए तो इस देश की दशा और दिशा बदल जाए, जिस तिरंगे की छत्रछाया में हम राष्ट्र वन्दना करते है,ये उस तिरंगे का सम्मान है,
किसी में भी कोई भावना जबरजस्ती नहीं भरी जा सकती,और इस बात को मैं भाई मानता हूं कि सिर्फ राष्ट्रीयगान को 52 सेकण्ड को सम्मान दे देने से आपको देशभक्त का सेटिफिकेट इससू नहीं हो जाता है मगर् ये बात भी सच है कि इस का सम्मान न् करने पर आप पर देश। विरोधी का ठप्पा अवश्य लग जाएगा, फिर भी मैं इस फैसले का समर्थक हूँ क्योंकि हम भारतीयों की प्रकृति है कि हम हर बदलाव का विरोध करते है चाहे वो हमारे हित् के लिए ही क्यों न् हो, हम किसी भी कानून में निहित अपने लाभ को नहीं उससे होने वाली असुविधाओं को देखते है,हमारा स्वाभाव बहुतकुछ उस मक्खी की तरह है जो एक साफ़ सुथरे स्थान को छोड़कर गंदगी में बैठना ही ज्यादा पसंद करती है,
ठीक बात है कि भावनाएं थोपी नहीं जा सकती मगर कभी सोचा है कि भावनाएं बनती कैसी है,अपने बच्चों में संस्कारी और धार्मिक भावनाएं भरने के लिए हम बचपन से उनको इस का अभ्यास कराते है, उसे पूजा में अपने साथ बिठाते है, और बच्चा जिस माहौल में पलता और बढ़ता है उसी के अनुरूप बन जाता है,बच्चे वैसा नहीं बनते जो आप उनसे बनने को कहते है बच्चे वैसे बनते है जैसा आप को देखते है, किसी पर भी आपकी राय और सलाह से ज्यादा आपका उदाहरण उन प्रभाव डालता है, आप क्या कहते है उससे ज्यादा आप क्या करते है लोग इस बात से प्रभावित होते है,
ये निर्णय भी एक प्रयास है देश के लोगो में देशभक्ति जगाने का, जब राष्ट्रगान सुनकर हममे 15 अगस्त और 26 जनवरी को राष्ट्रभक्ति जाग सकती है तो बाकी दिनों में भी कुछ न् कुछ फर्क अवश्य पडेगा, ये लोगो में सोई हुई देशभक्ति जगाने का एक अवेयरनेस कैंप है, हमारा सवाभव और प्रकृति हमारे दैनिक कार्यकलापो से निर्धारित होता है,हम रोज़् जैसा देखते है करते है वैसे ही बन जाते है,हर चीज अभ्यास से परफेक्ट होती है,हम जिस चीज का अभ्यास करते है उस में परफेक्ट हो जाते है,अगर सरकार हमें देशभक्ति का अभ्यास करने को कह रही है तो इसमें गलत क्या है??
हमको हमेशा देश के प्रति अपना अधिकार तो याद है तो देश के प्रति अपने कर्तव्य की इतनी अवहेलना क्यों?? जिस राष्ट्र से हम ये आशाएं करते है कि वो हमें अच्छा रहन सहन दे,अच्छी सड़के दे, अच्छी कानून व्यवस्था दे, अच्छा परिवेश दे क्या उसका का हम पर इतना भी हक़ नहीं वो हमसे हर महीने 52 सेकण्ड का सममान ले,
भारत की जनता और देशों से अलग है यहाँ लोग सुविधावादी है, हर चीज जब तक उनके लिए बाध्य न् की जाए वो नहीं अपनाते,मेरे हिसाब से सिर्फ सिनेमा में ही क्यों हर कालेज,हर स्कुल,हर सरकारी कार्यलय और हर सरकारी कार्य्रकम में राष्ट्रगान की बाध्यता होनी चाहिए,भारत में लोगो को हर रोज ये याद दिलाने की आवश्यकता है कि वो हिन्दू,मुस्लिम या ईसाई होने से पहले भारतीय है,और राष्ट्रगान कोई धार्मिक आलाप नहीं है देश के प्रति अपनी सम्मान प्रदेर्शन का एक तरिका है, जिन्हें ये भारी लगता है उन्हें एक आत्मसमीक्षा की आवश्यकता है, जिन्हें जय हिंद कहने में शर्म आती हो,भारत माताँ की जय कहने के लिए संविधान की पुस्तकें का हवाला देना पडे ऐसे लोगो के हाथ में देश की कमान देने से पहले एक बार अवश्य कुछ सोचने की जरुरत है कि आप अपने देश को कैसा देखना चाहते है,
मैं इस राष्ट्रवादी फैसले के साथ हूँ और इस का दायरा बढ़ाये जाने के पक्ष में हूँ, अगर इस निर्णय से हमारी न्यायपालिका पर राष्ट्रवादी होने का आरोप लगता है तो मैं बहुत खुश् हूं कि चाहे आजादी के बाद को 70 साल लग गए मगर लोकतंत्र का ये तीसरा स्तंभ राष्ट्रवादी तो हुआ???
जय हिंद..
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