नोटबंदी- सामाजिक विश्लेषण
8 नवम्बर को देश में एक ऐतिहासिक फैसला करते हुए 500-1000 के नोट बैन कर दिए गए, आजादी के बाद संभवतः ये शायद आपातकाल के अलावा सबसे बड़ा निर्णय था, एक ऐसा फैसला जिसका हर किसी पर प्रभाव अवश्य पडेगा,किसी पर कम, किसी पर ज्यादा मगर हर कोई इस से प्रभावित होगा, क्योकि हमारी जिंदगी को काफी हद तक पैसा संचालित करता है इसलिए इस फैसले से सभी को फर्क पड़ेगा, आपकी जेब पर इस फैसले का कितना अच्छा या बुरा फर्क पड़ेगा ये एक चर्चा का विषय है इस पर सभी कर सलाहकारों की अलग अलग राय है मगर सामाजिक रूप से हममें कितना बदलाव आया, इस फैसले से हमारी सोच में क्या परिवर्तन आया वो चर्चा करने लायक विषय है,
आधुनिक समाज काफी कुछ भौतिकवादी और सुविधावादी हो चला था हमने खुद महसूस किया होगा की पिछले कुछ वर्षों से हम इतने व्यवहारिक हो गए थे की हमें हमारी जिंदगी का सार सिर्फ पैसा कमाना हो गया था, हम व्यक्तिप्रधान समाज की और से पैसा प्रधान समाज की और जा रहे थे, लोगो को आंकने का माध्यम उनकी संपत्ति हो गया था, हम आध्यत्मिक आयोजन भी इसलिए करते थे ताकि हमारी सम्पन्नता नजर आ सके, शादियों पर होने वाला खर्च 10 साल में 10 गुना तक बढ़ गया था,हर एक का घर उसकी औकात से बढ़कर होने लगा था, और कई ऐसी बाते जो की ये सिद्ध कर रही थी की पैसा ही सब कुछ है,
मगर इस नोटबंदी के बाद शायद कुंछ बदला है,ये बदलाव कितना क्षणिक है या टिकाऊ है ये कहना मुश्किल है मगर कुछ तो जरूर बदला है, एक पुरानी कहावत फिर से सच साबित हुई है कि पैसा एक हद तक पैसा है उस के बाद कागज़ है, आज जिनके पास बेतहाशा काला धन है जो की शायद उनके अथक प्रयास और जोरदार जुगाड़ केबाद के बाद बहुत बड़ा भाग कागज हो जाएगा तो शायद उनकी सोच कुछ बदली,
बिना नोट के उनके एक बार फिर महसूस हुआ होगा की कोई भी इंसान छोटा नहीं होता, हर किसी को चाहे वो जितना बड़ा हो उसको छोटो की जरुरत पड़ती है, ईमानदारी से कमाने वाले जहा चैन की नीद सो रहे है वंही किसी के हक़ का मारकर कमाने वाले आज दुविधा में है, उनकी सबसे बड़ी ताकत आज उनका सबसे बड़ा टेंशन है, कंही न् कंही उनके मन में पैसो के प्रति आशक्ति आयी होगी,की जिस पैसो केे लिए उन्हीने जिंदगी भर काम किया चाहे वो अच्छा काम हो या बुरा वो पैसे आज बेवफा हो गए, शायद अगली बार जब कोई गरीब किसी ऑफिस में काम के लिए पहुचे तो उससे रिश्वत लेने से पहले एक बार कोई कर्मचारी अवश्य सोचेगा की इन पैसो का वो करेगा क्या,
सरकारी आंकड़ों का पता नहीं पर अपने अनुभव के आधार पर मैंने महसूस किया है कि आतंकवादी और नक्सलवादी संगठनों में भावना से सिर्फ 5 प्रतिशत लोग काम करते है बाकी 95 प्रतिशत आसान पैसो के लिए काम करते है, जब पैसे नहीं तो काम आतंकवाद नहीं, नक्सलवाद नहीं, अपराध नहीं, पिछले 15 दिनों में आर्थिक असुरक्षा के बावजूद भी लोगो में संमाजिक सुरक्षा की आशा जागी है, वो लोग भी चैन से सोए है जो की अपराध के डर से सो नहीं पाते थे, कंही न् कंही ये बात मन में जरूर आएगी की पैसा नही है या कम है मगर चैन की नींद तो है,
खुद मैंने महसूस किया है इन 15 दिनों में की हम कम् पैसो में भी जी सकते है,बड़ी आसानी से, और मजे से,हमारी जो सोच है कि ज्यादा से ज्यादा पैसा आसान जिंदगी का पर्याय है इस भावना का खण्डन हुआ है, बढ़ता मॉल कल्चर, अपने चेहरे की पहचान खोता इंसान, पैसा ही पहचान बनती संस्कृति को झटका लगा है, जब बिना पैसो के हम खरीददारी के लिए निकले तो बिग बाजार या मॉल वाले ने भले ही हमें पहचानने से इंकार कर दिया हो मगर पड़ोस का किराने वाला और पान वाला आज भी हमें उधार देने को तैयार है, आज भी वो हमसे स्टेटस में कई गुना कम पडोसी हमें शक्कर और बच्चे के लिए दूध देने को तैयार है, ये महसूस हुआ की जिनको हम अपने जिंदगी का सबसे महत्त्व पूर्ण आदमी समझते थे वो हमारे किसी काम नहीं आये,वो काम आये जिन्हें हम बहुत छोटा समझते थे,या कुछ समझते ही नहीं थे,
बहुत कुछ बदला,कंही न् कंही मन में ये भी एक सोच आयी की पैसे से आगे भी एक दुनिया है जो की ज्यादा जरुरी है, जब आपके जिंदगी भर की कमाई हुई दौलत के बदले भी किसी प्राइवेट क्लीनिक में आपका इलाज नहीं हो सका होगा तब लगा होगा की शायद आप ने जिस पैसे को खुदा मानाथा वो खुदा था ही नहीं,आप मंजिल तक पहुचने के लिए आप जिस ट्रैन में बैठे थे वो ट्रैन गलत थी,
जिंदगी जीने के लिए जरुरी चीजे जो थी वो पैसा नहीं प्यार है, समाज है, आपसी रिश्ते है जिन्हें हम पैसो की आपाधापी में भूल गए थे,शायद ये कुछ दिनों के लिए हो मगर एक बार तो आपके मन में विचार जरूर आया होगा,इस फैसले से ज्यादातर लोगो को कुछ न कुछ असुविधा हुई है मगर फिर भी वो इस फैसले के साथ है शायद इसलिए क्योकि इसमें एक बेहतर कल नजर आता है, कुछ लोग जो सिर्फ इसलिए बेईमान है क्योंकि ईमानदारी से आज कल गुजारा नहीं होता खुश् है क्योंकि शायद अब उन्हें बेईमान न् बनना पड़े, कुछ ईमानदार इस बात से खुश् है कि आज उनकी इमांदारी की कीमत अदा हो गयी, कुछ मौक़ा परस्त उस लिए खुश् है कि एक और मौक़ा मिला खुद के लिए और बहुत लोग इसलिए खुश् है क्योंकि अपनों में छुपे पराये और पराये में छुपे अपने नजर आ गए,
समय हर बात भुला देता है और ये समय भी भुला दिया जाएगा,कुल मिलाकर जो बातें दशकों से साधू महात्मा और संत समझाने में असफल हुए थे उस बात को 8 तारीख का मोदी जी का 15 मिनट का भाषण समझा गया कि पैसे इंसान के लिए है इंसान पैसो के लिए नहीं,जिन्होंने बुरे वक्त के लिए पैसे जमा किये थे पैसा उनके लिए बुरा वक्त ले आया है, इंसान की फितरत है कि वो ठोकर खाकर संभालना पसंद करता है, देखते है क्या ये ठोकर मानवता का मूल्य बढाती है या सिर्फ पानी का बुलबुला बन के रह जाती है,
नोटबंदी से धन कितने बदले ये तो कुछ दिनों में आंकड़ो से पता चल ही जाएगा है,मगर देखना ये है कि मन कितना बदला
ये सोचने की बात है..
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