लाइफ मंत्रा: ऑफलाइन जिंदगी,
विकाश खेमका
काँटाबाजी (ओडिशा)
टेक्नोलॉजी की पहुच से दूर एक अपना ठिकाना था,
अपनो के पास रहते थे वो भी क्या जमाना था,
मोबाइल के अलार्म नही मां की दुलार से उठता था,
इन भर का मोटिवेसन पिताजी की एक डांट से मिलता था,
ऑनलाइन क्लास नही सरकारी स्कूल हुआ करते थे
दोस्तो के साथ कितने कितनी मस्ती किया करते थे,
वेदर फोररकास्ट नही था बारिश में भीगने का मजा था,
बिना व्हाट्सअप के भी दोस्तो का दरबार सजा था,
न आज तक,न जी न्यूज , न कोई समाचार था,
अपना फेवोराइट कार्यक्रम तो चित्रहार था,
न पुब्जी,न प्रीफ़ायर,ना कैंडी क्रश, न यू ट्यूब था
अपना लिए मजा तो गिल्ली डंडा और खेल खुद था,
कुछ भी बोल देना मुश्किलों का घर नही था,
कॉल रिकॉर्ड और स्क्रीन शॉट का डर नही था,
घर मे फ्रिज नही था,कूलर नही था, टी वी नही थी
इमेज बहुत बढ़िया थी अपनी भले ही सेल्फी नाही थी,
सुविधा कम थी साधन काम थे लेकिन सुकून था,
अपने लिए तो सुप्रीम कोर्ट पिताजी का हुकम था,
आपसी चुगली-चट्ठा था, ताका झांकी थी,
अपने लिए गूगल पड़ोस की काकी थी,
बेशक मैगी,पिज़्ज़ा,बर्गर का स्वाद नही था
मगर मां में हाथ के खाने का कोई जवाब नही था
न फेसबुक,न ट्विटर न इंस्टाग्राम न जी मेल था,
मगर फिर भी बहुत पक्का आपसी मेलजोल था,
संबंध मजबूरी से नही मजबूती से निभाये जाते थे
शादीयो तंक में टेंट भी खुद ही लगाए जाते थे,
त्योहारो में हर्ष था,आंनद था ,उमंगे थी उल्लास था,
आज त्यौहार भी फिके है पहले हर दिन खास था,
पहले खुशियां थी आज कल सिर्फ खुशियों का वहम है,
पहले जिंदगी में खुशियों के पल थे अब हरपल में जिंदगी कम है,
सहज थी, सीधी थी, सरल थी,सच्ची थी,
जिंदगी जब *ऑफलाइन* थी, काफी अच्छी थी,
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