Monday, 1 February 2016

कभी Window shopping कर के देखिये

Window shopping..

तेजी से बढ़ती महानगरीय संस्कृति,भौतिकतावाद,और बढ़ता  सोशल स्टेटस, इन सबके बिच अपने आप को, अपने अहम् को ज़िंदा रख पाना मध्यमवर्गीय इंसान के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है,उसे अपनी और  अपने बच्चे की किसी  इच्छा को पूरा करने के लिए महीनो प्लानिंग करनी पड़ती है और एक छोटी सा अनिश्चितता उस महीने भर की प्लानिंग को फ़ैल कर देती है,
आज हम हमेशा रोना रोते है की महगाई बढ़ गई है,उसके लिए सरकार दोषी है,क्रूड आयल,या अंतराष्ट्रीय मार्किट की मंदी दोषि है,मगर मैं ये मानता हु की इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी है हमारी उपभोगीता करने की शक्ति का बढ़ना,हमारी खर्च करने की क्षमता का बढ़ना,आज से 10 साल पहले एक मध्यमवर्गीय परिवार का गुजारा 10000 रूपये में हो जाता था,मागर आज 25000 में भी मुश्किल है,अगर पिछले 10 सालो में देखे तो आम उपभोग में आने वाली कोई भी चीज का दाम 2.5 गुना नहीं हुआ है,फिर ये तकलीफ क्यों है,
इसकी जिम्मेदार है हमारी भौतिकवादी सोच ,भारत का मध्यमवर्ग इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है की किसी चीज को मध्यम वर्ग की पहुच में लाकर उसकी खपत कई गुना बधाई जा सकती है,"
"यहा जरूरत पूरी नहीं की जा रही है जरूरत creat की जा रही है",

और बहुराष्ट्रीय कंपिनय इस चीज में माहिर है,
वो पहले lays, kurkure,pepsi, pizza burger का विज्ञापन दिखाकर उनको खाने को प्रेरित करते है,फिर इसे खाकर जब हम ओवरवेट होते है तो स्लिम होने की दवाई बेचते है,

कुल मिला कर ये हमको एक atm की तरह use करते है ये जानते है की किस atm में kaise कितना पैसा निकाला जा सकता है,

मैं जब छोटा था तो घर में कपडे का बजट लगभग साल में 3 -4 जोड़ी का हुआ करता था आज कोई हिसाब ही नहीं है की हम कितना कपड़ा खरीदते है, इसके बाद भी आजकल न हमारे पास पहनने के लिये कपडे है और न अलमारी में कपडे रखने की जगह,

क्या इस अंधी दौड़ का कोई अंत है,?? इस समस्या का इलाज क्या है,

इस समस्या का इलाज एक दंपति ने मुझे सिखाया,

वो लोग एक मल्टीप्लेक्स के बहार सज-धज कर खड़े थे और एक फ़िल्म का पोस्टर देख रहे थे,उस बारे में बात कर रहे थे,फ़िल्म का समय हो चला मगर वो उन्होंने पिक्चर जाने का कोई उपक्रम न किया,बहुत देर बाद मुझसे रहा न गया मैंने उनसे पुछ लिया की आप पिक्चर क्यों नहीं जा रहे है,
उन्होंने बताया की वो एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से है जहा वो हर हफ्ते मल्टीप्लेक्स में पिक्चर देखना अफ़्फोर्ड नहीं कर सकते,अगर फिर भी वो हर हफ्ते मल्टीप्लेक्स आते है यहाँ घूमते है फिरते है,पोस्टर देखते है,यहाँ की दुकानों में घूमते है ,यहाँ शोकेस में लगे हुए कपड़ो को निहारते है,
और कुछ नास्ता ,चाय पानी कर के चले जाते है,इनसे उनकी इच्छा भी काफी हद तक पूरी हो जाती है और खर्चा भी बच जाता है,इसे वो window shopping कहते है,
ये window shopping का कांसेप्ट मुझे बहुत पसंद आया एक तरह से ये भी एक तरिका है अपने मन को समझाने का,अपने हद में रहकर अपनी जिंदगी का मजा लेने का,कुल मिलाकर उन्होंने सिखाया की जिंदगी में अपनी औकात में रह कर भी मजे लिए जा सकते है,
तो आप अपनी window shopping कब कर रहे है,

इसी तरह के
मेरी और भी विषयो पर मेरे विचार पढ़ने के लिए लोग इन करे

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