Saturday, 27 December 2014

संयुक्त परिवार

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बहुत सुँदर पंक्तियाँ-

वो पंगत में बैठ के
निवालों का तोड़ना,
वो अपनों की संगत में
रिश्तों का जोडना,

वो दादा की लाठी पकड़
गलियों में घूमना,
वो दादी का बलैया लेना
और माथे को चूमना,

सोते वक्त दादी पुराने
किस्से कहानी कहती थीं,
आंख खुलते ही माँ की
आरती सुनाई देती थी,

इंसान खुद से दूर
अब होता जा रहा है, 
वो संयुक्त परिवार का दौर
अब खोता जा रहा है।

माली अपने हाथ से
हर बीज बोता था, 
घर ही अपने आप में
पाठशाला होता था,

संस्कार और संस्कृति
रग रग में बसते थे,
उस दौर में हम
मुस्कुराते नहीं
खुल कर हंसते थे।

मनोरंजन के कई साधन
आज हमारे पास है, 
पर ये निर्जीव है
इनमें नहीं साँस है,

फैशन के इस दौर में
युवा वर्ग बह गया,
राजस्थान से रिश्ता बस
जात जडूले का रह गया।

ऊँट आज की पीढ़ी को
डायनासोर जैसा लगता है,
आँख बंद कर वह
बाजरे को चखता है।

आज गरमी में एसी
और जाड़े में हीटर है,
और रिश्तों को
मापने के लिये
स्वार्थ का मीटर है।
      
वो समृद्ध नहीं थे फिर भी
दस दस को पालते थे,   
खुद ठिठुरते रहते और
कम्बल बच्चों पर डालते थे।

मंदिर में हाथ जोड़ तो
रोज सर झुकाते हैं,
पर माता-पिता के धोक खाने
होली दीवाली जाते हैं।

मैं आज की युवा पीढी को
इक बात बताना चाहूँगा, 
उनके अंत:मन में एक
दीप जलाना चाहूँगा

ईश्वर ने जिसे जोड़ा है
उसे तोड़ना ठीक नहीं,
ये रिश्ते हमारी जागीर हैं
ये कोई भीख नहीं।

अपनों के बीच की दूरी
अब सारी मिटा लो,
रिश्तों की दरार अब भर लो
उन्हें फिर से गले लगा लो।

अपने आप से
सारी उम्र नज़रें चुराओगे,
अपनों के ना हुए तो
किसी के ना हो पाओगे
सब कुछ भले ही मिल जाए
पर अपना अस्तित्व गँवाओगे

बुजुर्गों की छत्र छाया में ही
महफूज रह पाओगे।
होली बेईमानी होगी
दीपावली झूठी होगी,
अगर पिता दुखी होगा
और माँ रूठी होगी।।

अन्तःकरण को छूने वाली है ये कविता

जिसने भी लिखी मेरा प्रणाम

एक विनती अपने समाज से

मारवाड़ी समाज हमेशा से ही धन का श्रोत रहा है
श्री लष्मी जी कीे मरवाड़ी समाज पर विशेष कृपा रही है क्योकि मारवाड़ी समाज प्रारम्भ से ही परिश्रमी दृढ संकल्प और अपने कार्य के प्रति समर्पित रहा है
आज भी देश के व्यवसाय में एक बड़ी संख्या मारवाड़ियों की है

कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य ये है की हम सुरुवात से ही लष्मीपुत्र है

देश के कोने कोने में हम बसे है
देश के कोई ऐसा कोना नहीं जहा कोई मारवाड़ी भाई न रहता हो
हमारे सहनशक्ति उद्यम विपरीत परिस्थियों में भी कार्य करने की क्षमता के कारन देश के हर कोने में हमारी समृद्धि का डंका बजता है

और हमने ही देश में अनेक गौशाला धर्मशाला मंदिर और पानी प्याऊ इत्यादि बनाकर विशेष रूप से सामाजिकता और सहृदयता का परिचय दिया है

अगर कोई मारवाड़ी धन कमाने के लिए जाना जाता है तो दान देने के लिए भी जाना जाता है

मगर पिछले कुछ वर्षो से मैं महसुस कर रहा हु की आज मारवाड़ी समाज में ज्यदातर लोग झुठे विज्ञापनो के प्रलोभन झूठी शान  और दिखावे की खातिर अपने रहन में बहुत ही ज्यादा खर्च करते हुए दान की परंपरा से दूर होते जा रहे है

हम भामाशाह के वंसज अपने मूल दान धर्म को भूल कर सिर्फ दिखावे और पतन की और अग्रसर हो रहे है

विवाह और अनेक शुभ अवसरों पर हमारे  फालतू खर्च बढ़ते ही जा रहे है
विवाह में भोजन और नाना प्रकार के आडंबर कर के हम अपनी आप को अर्थ दंड तो देते है है साथ ही समाज को बांटते भी है

हम अनजाने में ही अपने और अपने से छोटे वर्ग के लोगो में हिन् भावना का संचार करते है

आलिशान शादियों
फिजूल खर्च
दूसरे दिन  गंज भर कर पड़े हुए  अन्न के अपमान पर हमें  शर्म नहीं आती

क्या यही हमारी संस्कृति है
मै तो हमारी वो संस्कृति से परिचित था जहा अन्न को अनापूर्ना देवी माना जाता है

कृपया इस विषय में ध्यान दे

की हम पुरखो से चली आरही अग्र वंश के गर्व को नष्ट करने की और अग्रसर न हो।

अपने घर की आलीशान शादियो
बजाय किसी जरुरत मंद को मदद पहुचे तो क्या ये ज्यादा तर्क सांगत और ज्यादा न्याय सांगत नहीं होगा

मेरी आपसे विनती है की आप अपने कार्याकाल में इस सामाजिक कुप्रथा  के विरोध में कुछ कदम उठाये

ये एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है जिस पर हमारी आने पीढ़ियों का सामजिक परिदृश्य निर्भर करता ह की हम अपने आने वाली नस्ल को किस परिवेश में देखना चाहते है

मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विस्वाश है की आप इस  सामजिक पतन के मुद्दे को हल करने में अपने विवेक और अनुभव का पूरा इतेमाल करेंगे।

और अपने आने वाले इस तरह के आयोजन में झूठे आडंबरो को तिलांजलि देकर एक स्वस्थ और नयी परमपरा की सुरुआत करेंग

धन्यवाद।े

जुगाड़

कल ठण्ड बहुत थी मन पर काबू नहीं हो रहा था ऐसी ठण्ड में मन में विचार आया की ऐसी ठण्ड में अगर "ठुकाई "का इंतेजाम हो जाये तो मजा आ जाये बस फिर क्या था इसके बाद तो मन पे काबू रखना मुश्किल था।
फ़ोन निकाला अपने प्रिय दोस्तों को फ़ोन किया और "जुगाड़" में महारथ हासिल उन प्रिय मित्रो की मदद से  सारी व्ययसथा कर ली ।3000 रिपये में बात फाइनल हुई।आने वाले मजे के जोश  को दुगना करने के लिए में एक बोतल ब्लैंडर प्राइड भी 800 की ले ली साथ में कुछ चकना जरुरी था तो 100-150 चखना की भेट चढ़ गया

मगर जो आनंद प्रात होने वाला था वो इसके आगे नगण्य था

अपने आप को आंदोलित सा महसूस कार्य हुआ मै अपने प्रिय मित्रो के साथ अपने जुगाड़ के शिकार की और ।

ठण्ड ज्यादा थी इसलिए बाइक की जगह कार ले ली ।

और कार तेजी से अपनी मंजिल की और बढ़ने  लगी ।

अचानक मेरे मब में उठी इस आनंद की गति को जसै ब्रेक लग गया

गाड़ी जब फूटपाथ से गुजरी तो  मैंने देखा की कुछ लोग इस कड़कडटी ठण्ड में गठरी से बने हुए नगे बदन फुटपाथ प सोये है

मैंने कोट पहन रखा था गाड़ी में शीशे चढ़ाये हुए थे और फिर भी ठण्ड से बुरा हाल था और वो सब नंगे बदन कठोर फूटपाथ पर पड़े थे ये  देखकर मेरे सरीर ने एक झुरझुरि ली ।

मैं गाड़ी से उतरा ।उनके पास पहुचा और अपनी जेब में हाथ डाला हिसाब किये कुल 3000 रूपये थे  हिसाब किताब किया तो लगा की इतने रूपये से इन सब के लिये कम्बल का इंतेजाम किया जा सकता था । मेरे कदम कम्बल की दूकान की और बढ़ चले रस्ते में मेरे मन और दोस्तों ने कई आवाजे दी की रुक जा तू क्या कर रहा है तू आज रात का जुगाड़ ख़राब कर रहा है पागल हो गया है क्या

मगर उस समय शायद मैं बहरा हो गया था

मैंने कमबल ख़रीदे और उन गरीब नंगे बदन वालो कोढक दिया

मेरे दोस्त मुझे वही छोड़ कर चले गए अपने जुगाड़ के पास अपनी गर्मी का इंतेजाम करने।

मै पैदल ही घर की तरफ वापस लौट पड़ा।आज जो सुकून मुझे 3000 रूपये में उन नंगे बदन को ढकने का आया था वो संतुस्ती कभी किसी को 3000 रूपये दे के नंगा करने में नहीं आया था

आज मुझे वो सब रात याद आ रही थी जब मैंने 2000-5000 खर्च करके अपने तन की ठण्ड मिटाई थी

दो आंसू मेरी आँखों से ढल निकले
मेरे मन को गर्मी मिल गई थी
आज मैंने  मेरे जुगाड़ को छोड़ कर बहुत लोगो के लिए  गर्मी का इंतेजाम कर दिया था

नोट-ये कथा पूरी तरह से काल्पनिक है और इसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है।ये सिर्फ किताबी बाते है और आज के समाज में संभव नहीं है

मेरी और भी विषयो पर मेरे विचार पढ़ने के लिए लोग इन करे http://vikashkhemka.blogspot.com