Wednesday, 26 August 2015

अग्रवाल समाज में महिलाओ की सहभागिता

अग्र समाज हमेशा से ही समाजवाद का आदर्श उदाहरण रहा है..इसमें परस्पर सहयोग और मिलन की भावना जो है वो बहुत ही कम समाजो में देखने को मिली है..समानता का जो अधिकार इस समाज में  है वो शायद किसी और समाज में हो सकता है..

इस समाजवाद के राह पर चलते हुए हमें सदियो से अपनी संस्कृति पर गर्व करते आये है..

मगर बदलते परिवेश के साथ ये महसूस किया गया है की  इसमें कुछ बदलाव की जरूरत है..
अग्रसमाज आज भी पुरुष प्रधान ही रहा है..
इसका ज्वलन्त उदाहरण किसी भी अग्रवाल सभा को ही ले ले जहा महिलाओ की भागीदारी शून्य है..

क्या आपको नहीं लगता कि महिलाये भी अग्रवाल समाज का ही हिस्सा है तो उन्हें समानता के अधिकार के चलते अग्रवाल सभा में प्रतिनिधित्व दिया जाना चहिये,

ठीक है इसमें कुछ व्यवहारिक असुविधाएं (जैसे देर रात्रि की संभा में सहभागिता,दौरे,इत्यादि) हो सकती है , मगर क्या हमें खुद से आगे बढ़कर एक उदाहरण प्रस्तुत करने के जरुरत नहीं है की अग्रवाल समाज में महिलाओ को समानता का अधिकार है,

हो सकता है इस विषय पर एक राय न बन पाये विरोध भी हो,मगर किसी भो समाज की उननति में महिलाओ की सहभागिता बहुत जरुरी है..और ये सकारात्मक प्रारम्भ हम खुद कर के एक ऐतिहासिक कदम उठा सकते है...

आज जहा देश में महिला आरक्षण और उनके सामान अधिकारो की बात होती है अपने समाज में जो की समाजवाद का उत्कृष्ट नमूना है उसमे ये पहल अवश्य करनि चाहिए,
आज महिला शसक्तीकरण के युग में इस विषय पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है....

आज जब हमारे समाज की महिलाये और युवतियां ca ,डॉ,इंजिनीरिंग ,ias,बनकर समाज के हर क्षेत्र में कार्यरत है तो हम उन्हें अपने ही समाज में सक्रीय होने के अधिकार से क्यों  रोक रहे है??

शास्त्रो में भी कहा गया है की "जहा महिलाओ का सम्मान होता है वहा देवता निवास करते है"

हम अग्रवंश के वंसज अपने इष्ट देवी श्री लक्षमी जी को मानते है जो की महिला स्वरुप में हमेशा हमारे पास  विराजमान रहे ऐसे कामना की जाती है फिर महिला समाज को अपनी सभाओ में सहभागिता देने में ये भेदभाव क्यों???

ये बात सही है की जहा तक मेरी जानकारी है कभी भी किसी महिला संगठन ने ये बात नहीं उठाई है ,मगर क्या इससे हमारा दायित्व उनके प्रति ख़त्म हो जाता है,अगर उन्होंने आज तक अपना हक़ माँगा नहीं है तो क्या ये हमारी नैतिक जिम्मेदारी नहीं की हम खुद उनको उनका हक़ दे,

अब ये आपके ऊपर है की आप पुरुषप्रधान समाज का अहकारमयी वातावरण चाहते है या समानता का अधिकार वाला ममतामयी वातावरण....

सोच आपकी
फैसला आपका,

Tuesday, 18 August 2015

दृश्यम

कल "दृश्यम " फ़िल्म देखि,
फ़िल्म का  कॉन्सेप्ट है इनसान का मनोविज्ञान है की  देखि हुई  मेमोरी सबसे मजबूत होती है और ये सब मेमोरी पर भारी होती है,
हम बाकी इंद्रिया जैसे कान,नाक, स्पर्श,इत्यादि की याददास्त सीमित होती है, इन सब के मुकाबले देखि हुई चीजे बहुत लंबे समय तक याद  तरही है, उदाहरण के तौर पर हमें पढ़ी हुई चीजे बहुत दिनों तक याद रहती है क्योकि इस में हमें उस चीज को देख कर पढते है, टीवी का ऐड रेडियो के ऐड से 10 गुना महंगा होता है क्योकि देखि हुई यादो को अनदेखा करना बहुत मुश्किल होता है,

कहने का मतलब ये है की हम या हमारा स्वाभाव ,हमारी आदते बहुत कुछ इस पर निर्भर करती है की हम रोज क्या देखते है,

यही सोच अपने बच्चों पर लागु कर के देखिये,
आज हर किसी को ये शिकायत है की उनका बच्चा लापरवाह है,गैर जिम्मेदार है,आलासि है, स्वार्थी है,झूठ बोलता है या कुछ न कुंछ थोड़ी हो या ज्यादा शिकायत सब से है,

हम तो रोज अपने बच्चों को अच्छी  शिक्षा देते है  की अच्छे इंसान बनो,अच्छे काम करो, झूठ मत बोलो, तो फिर वो ये सब कहा से सिख रहे है,

बाल मन एक कोरा पन्ना होता है ये वही सीखता है जो वो देखता  है,अपने बच्चों के सामने हम खुद झूठ बोलकर हम उन को हम खुद झूठ बोलना सिखाते है,
उनके समाने अपने कर्तव्यों से भागकर हम खुद उन्हें गैर जिम्मेदार बनाते है,उनके सामने दुसरो की बुराई कर के उनको बुराई करना सिखाते है,

अनजाने में ही हमारी कथनी और करनी में इतना फर्क है की बच्चा वो ही सीखता है जो वो देखता है वो नहीं जो हम कहते है,

कोशिश कीजिये की ये विरोधभास बच्चों के सामने न हो,बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए  उन्हें एक अच्छी सिख देने के बजाय एक अच्छा उदाहरण बन कर देखिये,

शायद अपने बच्चों से आपकी शिकायते कुछ कम हो जाये...

मेरी और भी विषयो पर मेरे विचार पढ़ने के लिए लोग इन करे http://vikashkhemka.blogspot.com
धनयवाद,
विकाश खेमका,
उपाध्यक्ष
मारवाड़ी युवा मंच,कांटाबांजी